बिहार के बेगूसराय जिले का एक साधारण सा सिमरिया गाँव, कविता की दुनिया के नक्शे में असाधारण महत्व रखता है. क्यूँकि इसी मिट्टी से ओज़ की कविता के एक सूर्य का जन्म हुआ था, जिसका नाम था, रामधारी सिंह दिनकर. दिनकर जब कविता की धरती पर आए तो भावों के परिंदे जाग उठे. भाषा ने नयी शक्ल पाई और हिन्दी की ताक़त रामधारी सिंह दिनकर की क़लम की शक्ति पाकर गूँज उठी.
सुनूँ क्या सिन्धु! मैं गर्जन तुम्हारा, स्वयं युगधर्म का हुँकार हूँ मैं!
‘मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं, उर्वशी.. अपने समय का सूर्य हूँ मैं!
युगधर्म का हुँकार भरने वाली ये पंक्तियाँ और ना जाने ऐसी कितनी ही पंक्तिया राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ ने लिखी हैं जो आज आम लोगों के बीच कहावत बन चुकी है.
इस दिनकर नाम के सूर्य का जन्म भी भारत के पूर्वी दिशा मे ही 23 सितंबर 1908 को माता मनरूप देवी और पिता बाबू रवि सिंह के आँगन में हुआ था. बालक दिनकर ने बचपन मे ग़रीबी का अंधेरा देखा था. पूरे गाँव में एक भी पक्का घर नहीं था. लेकिन केवल दिनकर ही इस ग़रीबी के शिकार नहीं थे, बल्कि उस समय समूचा देश इसकी चपेट में था. दिनकर ने अँग्रेज़ों की गुलामी को भी देखा और उनके अत्याचार से त्रस्त किसानों के जीवन के अंधकार को भी. अब इस अंधकार के विरुद्ध जंग छेड़ने की नींव दिनकर के विचारों मे पद चुकी थी.
अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध क़लम से संघर्ष छेड़ने वाले दिनकर का हृदय हमेशा गाँव मे रहा. उसी गाँव में जहाँ बचपन में उन्होने गाय भैंस चाराए, जहाँ कुश्ती कसरत कर उनकी देन्ह तगड़ी हुई, जहाँ उन्होने स्कूल जाना शुरू किया, और जहाँ दो बरस की नन्ही उम्र मे पिता का साया उनके सर से उठ गया था. दिनकर का विवाह 13 वर्ष की आयु में श्यांवाती देवी के साथ हुआ जिनसे उन्हे दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हुए.
उम्र के बीसवें साल में मेधावी दिनकर ने मैट्रिक की परीक्षा पूरे प्रांत मे सबसे अधिक अंक लेकर पास किया और स्वर्ण पदक भी पाया. उम्र के इसी बीसवें बरस मे दिनकर के 34 कविता-संग्रह शृंखला का भी श्री गणेश हुआ और ‘विजय-संदेश’ नाम की उनकी पहली कविता पुस्तक भी छपी. बरदॉली सत्याग्रह में सरदार पटेल की विजय से प्रेरित इस पुस्तक का संदेश पूरे बेगूसराय में गूँज उठा. अब ये सॉफ था कि भविष्य में दिनकर का ओज़स्व किसी सीमा में बँधकर नहीं रहेगा .
24 साल की आयु मे दिनकर पटना कॉलेज से इतिहास के विशेसग्य स्नातक हुए. दिनकर के तेजस्व की पहली पहचान सन् 1933 में पहली बार हुआ जब उन्हे भागलपुर में बिहारी-हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन में आमंत्रित किया गया जहाँ कविताओं का विषय था – ‘हिमालय’.
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
पूरी कविता: यहाँ पढ़ें
श्रोताओं पर इस कविता का इतना असर हुआ कि दिनकर को इसे 3-4 बार सुनाना पड़ा. इस तरह कवि सम्मेलनों में दिनकर के यात्रा की शुरुआत हुई जो उन्हें लोकप्रियता के शिखर पे लेकर गयी. दिनकर के क़लम के असर से हिन्दी साहित्य ने छायावाद को और सजग, और संपन्न और पूर-असर किया. कल्पना रहस्य के आसमान से सच्चाई की ज़मीन पर उतार आई. फिर 1935 में ‘रेणुका‘ और सन् 1939 में ‘हुंकार‘ के प्रकाशन ने इस परिवर्तन पर प्रतिष्ठा की मुहर लगा दी.
सन् 1933 तक दिनकर को बरबीघा हाइ-स्कूल का प्रधानाचार्य नियुक्त किया गया. फिर 1934 मे उन्हें सीतामढ़ी में सब-रजिस्ट्रार के पद पर नियुक्ति दी गयी जहाँ वे 1942 तक रहे. फिर उन्हें उद्ध-प्रचार विभाग मे भेज दिया गया जहाँ वे 1945 तक कार्यरत रहे.
अब दिनकर का नाम क्रांतिकारी कवियों की श्रेणी में लिया जाने लगा. ‘रेणुका’ में लिखी दिनकर की क्रांतिकारी कविता का स्वर सरकार के कनों तक पहुँचा. अँग्रेज़ी सरकार ने ‘रेणुका’ का अँग्रेज़ी अनुवाद करवा कर दिनकर से सफाई माँगी. दिनकर ने सॉफ शब्दों मे जवाब दिया “मेरी किताब सरकार के खिलाफ नहीं, देश प्रेम की है, जिसे मैं कोई जुर्म नहीं मानता’.
दिनकर की क़लम ले केवल आज़ादी के दीवानों की जयकार और ब्रिटिश गुलामी को धिक्कार ही नहीं की, बल्कि उन सामाजिक बुराइयों और पाखंडों को भस्म करने का भी आह्वाहन किया जो समाज को अंध-विश्वास मे धकेल रहे थे. दिनकर ने सबकुछ देखा. भारत की जनता पर अँग्रेज़ी हुकूमत के अत्याचार देखे और उन अत्याचारों का विरोध करनेवाले भी देखे. दिनकर की कविताओं मे इत्र-फुलेल की खुश्बू हो या ना हो, सौंधी मिट्टी की महक ज़रूर है.
दिनकर और उनके साथ के समय के एक और महान कवि हरिवंश राय बच्चन ने हिन्दी के भाषा को बदलने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई. हालाँकि दोनो ही छायावाद के गर्भ से निकले हुए कवि थे लेकिन इन्होने छायावाद के बर्फ को पिघलाने का काम किया. इन्होने साधारण बोल चल की भाषा का उपयोग शुरू किया जिसमें उर्दू-फ़ारसी के शब्दों से परहेज़ नहीं था. इसी वज़ह से वो भाषा ज़्यादा दूर तक पहुँचने वाली भाषा सिद्ध हुई. अपनी सहज़ और बुनियादी हिन्दी में दिनकर ने एक अलग काव्य-भाषा का आदर्श प्रस्तुत किया जिसमे कोई कवि सिर्फ़ कवियों से नहीं बल्कि आम लोगों को भी संबोधित कर सके.
सूरज में आग तो है पर वो विनाश का समर्थक नहीं होता. दिनकर ने दूसरे विश्वयुद्ध का गहरा अंधकार देखा था. उन्होने अपने प्रबंध काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ के छंदों में युद्ध और शांति पर गंभीर विमर्श किया. ‘कुरुक्षेत्र‘ की पृष्ठभूमि में द्वीतिय विश्व-युद्ध है और इसका संदेश सीधा-सपाट नहीं है. दिनकर ने भी अँग्रेज़ी सेना में लोगों को भरती करने के लिए प्रचार का कार्य भी किया. उन्होने ‘महाभारत’ की पृष्ठ-भूमि से ये संदेश देना चाहा कि, युद्ध करना कोई नहीं चाहता, लेकिन युद्ध अगर अनिवार्य हो जाए तो आप इस से भाग नहीं सकते. ‘कुरुक्षेत्र’ रामधारी सिंह दिनकर की एक अद्भुत रचना है.
कुरूक्षेत्र के द्वितीय सर्ग से दिनकर जी की आवाज़ में: (20 Secs)
जब भारत आज़ाद हुआ तो दिनकर ने इस सूर्योदय का श्रेय भारत की जनता को दिया. ना अंग्रेज सरकार की नौकरी उन्हें जनता की आवाज़ बनने से रोक सकी और न ही संसद मे राज्य-सभा की निर्वाचित सदस्यता. दिनकर 1952 से सन 1964 तक राज्य-सभा के संसद रहे. इस दौरान उन्होने दिल्ली का सच देखा जिसने उनका हृदय व्यथित कर दिया था. डीकर की कविताओं ने इस समय की दिल्ली पर भी सवालों के अंगारे बरसाए. सामाजिक न्याय दिनकर के भाव-बोध का आधार था. समाज का सबसे कमजोर और सोशित आदमी दिनकर की नज़र में और उनकी क़लम में हुंकार की तरह मौजूद रहा.
बचपन में जब मैं अपने बड़े भाई को बहुत ही जोश और रूचि से कविता पाठ में की प्रतियोगिता में भाग लेते देखा है. वो हर बार ही प्रथम पुरस्कार लेकर आते थे. मेरी रूचि भी कविता सुनने और पढ़ने में उनके ही कारण बढ़ी और जो मैने एक बार उनके मुख से ‘रश्मि-रथी’ का पाठ सुना, वो आज तक की मेरी सबसे प्रिय कविता बनकर रह गयी. मेरी एक और बहुत ही प्रिय कविता, ‘शक्ति और क्षमा‘ मैं अपने बड़े भाई की आवाज़ मे प्रस्तुत करता हूँ, आशा है आपको पसंद आएगी. (74 Secs)
दिनकर की ‘रश्मि-रथी‘ उनकी वाणी की उस शक्ति का प्रतीक है, जिसने हर तरह की विषमता से डटकर लोहा लिया. ‘रश्मि-रथी’ में कर्ण के स्वाभिमान की रक्षा की रक्षा की गयी है. अगर आपने ‘रश्मि-रथी’ नहीं पढ़ी या सुनी है, तो आपसे हिन्दी साहित्य का आधा सागर अछूता है. मेरे अग्रज अपनी शैली मे ‘रश्मि-रथी’ पढ़ते हुए, एक सर्ग सुनिए: (4.34 Minutes)
सन् 1956 में ‘संस्कृति के चार अध्याय‘ नामक विशाल ग्रंथ छपा. दुनिया ने देखा कि अंधेरे के विरुद्ध हुंकार भरने वाला कवि, भारतीय सामासिक संस्कृति के इतिहास का विषद विवेचन भी कर सकता है. उन्होने इस बात पर ज़ोर दिया कि जिस संस्कृति को हम बहुत ही शुद्ध रूप से प्रस्तुत करते हैं उसका विश्लेषण होना चाहिए. उन्होने मुख्य रूप से ये बात कहनी चाही है की संस्कृति मे सहिष्णुता होनी चाहिए. उनका कहना है की सहिष्णुता ही संस्कृति है, और कट्टरता विकृति. ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए साहित्य अकादमी अवॉर्ड मिला जिसकी भूमिका जवाहर लाल नेहरू ने खुद लिखी थी.
सन् 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया और ‘परशुराम की प्रतीक्षा‘ के मध्यम से दिनकर का पौरुष एक बार फिर हुंकार उठा. भारत-चीन युद्ध में पराजय से क्षुब्ध कवि दिनकर पराजय के जिम्मेदारों पर रोष व्यक्त करते हुए सैनिकों की ओर से कहते हैं कि अब समूचे राष्ट्र में व्याप्त हो चुके इन अकर्मण्य व अनाचारी व्यक्तियों पर नियन्त्रण अनिवार्य है। षड़्यंत्रकारी-प्रपंचकों, मक्कारों, धूर्तों एवम् कार्य की लगन से रहित इन निकम्मे हड़तालियों को कठोरता से उनका कर्तव्य याद दिलाना होगा। हम (हमारे सैनिक) जब रण प्रांगण में रक्त बहा रहे हैं तो वे भी कर्म-क्षेत्र में पसीना बहाएँ।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें तुमको विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो,
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में?
हो जहाँ कहीं भी अन्य, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में,
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
काम जैसे मनोभाव के महत्व को स्वीकार करने और उसे आध्यात्मिक गरिमा तक पहुँचाने के लिए, जिस साहस की ज़रूरत थी, वो दिनकर में मौजूद था. ‘उर्वशी‘ नमक ग्रंथ में अर्धनारीश्वर का आशय उन्होनें ऐसे समझाया: “जिस पुरुष मे नारित्व नहीं, वो अधूरा है और जिस नारि में पुरुश्त्व नहीं वा भी अपूर्ण है. ‘उर्वशी’ दिनकर की महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति, जिसके लिए सन् 1972 में उन्हें साहित्य का सर्वोच पुरस्कार, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. दिनकर की वाणी का अभिनंदन देश और समाज ने उन्हे विभिन्न पुरस्कार देकर सम्मानित किया. भारत सरकार ने उन्हे पद्म-भूषण के सम्मान से अलंकृत किया.
दिनकर ने हिन्दी भाषा के सार्वजनिकता की पुनः प्रतिष्ठता की. उनसे सीख ये मिलती है कि किसी एक शैली या किसी एक दृष्टि पर जड़े रहना या पड़े रहना भाषा की सार्वजनिकता के लिए ठीक नहीं है. दिनकर एक काव्य-गोष्ठी में भाग लेने तिरुपति पहुँचे. तिरुपति के मंदिर में उन्होने ‘रश्मि-रथी’ के तृतीय सर्ग से भगवान श्री कृष्ण के विराट रूप का पाठ किया. ये दिनकर का अंतिम काव्य-पाठ था. तिरुपति में 24, अप्रैल 1974 की रात दिनकर को दिल का दौरा पड़ा और वे भगवान के विराट रूप में समा गये.
दिनकर की अपने मृत्यु पे दो शब्द: (16 Secs)
दिनकर की वाणी, उनकी कविता, उनके विचार अमर हैं. जिसका प्रकाश भविष्य को आलोकित करता हो वह सूर्य कभी अस्त नहीं होता.
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