ऑपरेशन सिंदूर: भारत की निर्णायक सैन्य जीत

ऑपरेशन सिंदूर के ‘ठहराव’ के उपरांत लगभग तीन हफ्ते बीत चुके है। शायद यह सही समय है कि हम पीछे मुड़कर इस ऑपरेशन और उसके चारों ओर बने नैरेटिव वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करें।

पहले, सच्चाई…

सिर्फ़ 72 घंटों में, 72 हूरों के आकांक्षियों ने घुटनों के बल माफ़ी मांगी और युद्धविराम की गुहार लगाई।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ़ ने कथित तौर पर ट्रंप प्रशासन को बताया कि भारत ने उनके सैन्य ढांचे को निशाना बनाकर तबाह कर दिया है, उनकी एयर डिफेंस प्रणाली और कई एयरबेस नष्ट हो गए हैं , और अब वे ऐसी स्थिति में अपने सामरिक ‘न्यूक्लियर एसेट्स’ जो की आतंकवादी संगठनों के हाथों में जा सकते हैं, कुछ भी बचाने की हालत में नहीं हैं। और यदि ऐसा होता है तो पाकिस्तान की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी।

ऐसा कह पाकिस्तान ने ये स्वीकारा है की वह कमजोर है और उसके सैन्य ढांचे में आतंकवादी संगठनों की घुसपैठ हो चुकी है।

ऐसे में लश्कर-ए-तैयबा, तालिबान, टीटीपी और हिज़बुल जैसे संगठनों की उपस्थिति, जो पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका के लिए भी ख़तरा हैं — को देखते हुए अमेरिका सतर्क हो गया और कथित रूप से हस्तक्षेप किया। जब अमेरिका ने भारत से संपर्क किया, तो भारत ने सुझाव दिया कि उनके डीजीएमओ को भारत के डीजीएमओ से संपर्क करना चाहिए।

पाकिस्तान के डीजीएमओ ने तुरंत भारतीय समकक्ष से संपर्क कर युद्धविराम की गुहार लगायी।
भारत ने सख्त चेतावनी देते हुए मात्र एक ‘ठहराव’ पर सहमति जताई — वो भी एक शर्त के साथ:
‘यदि भारत पर भविष्य में किसी भी प्रकार का आतंकी हमला हुआ तो वो युद्ध की कार्रवाई मानी जाएगी। और यदि ऐसा होता है, तो पाकिस्तान को मलबे में बदल दिया जाएगा।’

प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यह कोई औपचारिक समझौता नहीं है — केवल एक ‘समझदारी’ और ‘ठहराव’ है। उन्होंने यह भी दोहराया कि सभी निलंबित संधियाँ अभी भी अटल हैं और किसी भी हालत में पुनः बातचीत का विषय नहीं होंगी।

मीडिया ने इसे ‘सीज़फायर’ कह दिया!

कुछ लोग हैरान रह गए, कुछ राहत में थे, और कुछ निराश। ये साड़ी भावनात्मक प्रतिक्रियाएं उनकी अपनी अपेक्षाओं के अनुकूल थीं।

मैं यहां उन निराश लोगों को ही सम्बोधित करना चाहता हूँ।

एक बातचीत में मैंने किसी अपने को यह लिखते सुना:

‘अब छोटी-छोटी जीतें मायने नहीं रखतीं। हम अभी भी उबल रहे हैं। हमारे पास किसी आतंकी मास्टरमाइंड का सिर भी नहीं है। पाकिस्तान में जिहादी आईएसआईएस जैसी मानसिकता बहुत गहराई तक समाई हुई है। इससे उस पर लगाम लगाने या कम से कम हमें यह भरोसा दिलाने में कोई मदद नहीं मिलती कि उन्हें काबू कर लिया गया है।’

एक और बातचीत में कोई बोला:
हम इस रणनीति के नतीजे देखने के लिए एक और दशक इंतजार नहीं कर सकते। और सबसे बुरी बात ये कि हम ये स्वीकार भी नहीं कर सकते कि भारत ये सब खत्म करने की क्षमता नहीं रखता।’

एक और टिप्पणी थी:
लोगों में बनी धारणा भी उतना ही अहम है जितना कि यथार्थ। और भारत न तो युद्धभूमि पर और न ही कूटनीतिक स्तर पर किसी को यह विश्वास दिला पाया कि उसने ये लड़ाई जीती है।’

एक व्यक्ति ने तो यहां तक लिखा: ‘ये मोदी एकदम नपुंसक है साला।’

इन सभी भले लोगों से, जो इस बात से निराश हैं कि भारत ने पाकिस्तान का “काम तमाम” क्यों नहीं किया — मेरा सिर्फ एक सवाल है:

आप “पाकिस्तान का खात्मा” कहकर वास्तव में कहना या करना क्या चाहते हैं?
क्या आप वर्ल्ड-वॉर-II जैसी कोई सैन्य कार्रवाई चाहते हैं? पाकिस्तानी सेना को घेरकर पाकिस्तान पर कब्जा कर लेना चाहते हैं?
और आप क्यों चाहेंगे कि भारत उन करोड़ों शत्रुवत लोगों को अपने अधीन लाए, जिनमें से कई तो मानते हैं कि शरीर पर बम बांध उड़ जाना ही उनके जीवन का परम लक्ष्य है?

कुछ और विचार भी सामने आए थे। जैसे – “पाकिस्तान को पाँच हिस्सों में बाँट दो।”
शानदार! लेकिन कैसे?
चाहे पाकिस्तान जितना भी दुष्ट और असफल देश हो, फिर भी वह एक देश है। यह कोई लेगो खिलौनों का सेट नहीं है जिसे तोड़कर अलग-अलग कर दिया जाए।
उसका विघटन अवश्यंभावी हो सकता है, लेकिन इसके लिए समय, ऊर्जा, धन और कई अज्ञात बंदूकधारियों की ज़रूरत होगी। शायद 8-10 साल और।

कुछ लोगों ने कहा, “हमें उनके सारे एयरबेस, सैन्य अड्डों, बंदरगाहों और मुख्यालयों पर एक बड़ा हमला करना चाहिए। सब कुछ नेस्तनाबूद कर दो।”
सनी देओल की किसी फिल्म की तरह?
हकीकत में अगर हमने ऐसा किया, तो पाकिस्तान अपने परमाणु हथियार ज़रूर छोड़ेगा। यही उनका अंतिम उपाय है और वे उसका प्रयोग करेंगे भी। बेशक, उसके बाद हम उन्हें नक्शे से मिटा देंगे, लेकिन क्या हम इस विकल्प के लिए तैयार हैं?
नहीं, और होना भी नहीं चाहिए।
हम कभी पहले परमाणु हथियार का उपयोग नहीं करेंगे — क्योंकि हम भारतीय हैं। हम तो नैतिक रूप से भी उस विचार को सोच नहीं सकते, उसे मंजूरी देना तो दूर की बात है।

तो फिर क्या किया जाए?

बिना उद्देश्य के युद्ध, व्यर्थ होता है। ऑपरेशन सिंदूर का उद्देश्य दोहरा था —

।पहला, पाकिस्तान को स्पष्ट संदेश देना कि हर एक भारतीय के खून की कीमत, हम उनके 100 आतंकियों से लेंगे — चाहे वे उनके देश के भीतर कितनी भी गहराई में क्यों न छिपे हों। दूसरा, यदि पाकिस्तान पलटवार करता है, तो हम और ज़ोरदार प्रहार करेंगे।

क्या हम सफल हुए? निःसंदेह!

हमने पाकिस्तान के भीतर घुसकर 9 आतंकी कैंपों को तबाह किया और लगभग 200 जिहादी आतंकियों को उनके ठिकानों पर खत्म किया।

हमने उनकी वायु रक्षा प्रणाली को मज़ाक बना, पाकिस्तान के सारे प्रमुख एयरबेस पर हमला किया।

चाहे वे अपने मीडिया में जो भी दावा करें और खुद को कितने भी सम्मान दे दें, हकीकत में वे जानते हैं कि हमने उन्हें तीन दिन में घुटनों पर ला दिया।

इंडस जल संधि अब इतिहास बन चुकी है।

अब हम खुद को यह स्वतंत्रता दे चुके हैं कि किसी भी आतंकी घटना के बाद पाकिस्तान पर तुरंत कार्यवाही कर सकें।

अगर ये निर्णायक जीत नहीं है, तो फिर क्या है?

मुझे कोई संदेह नहीं कि आतंकी फिर कोशिश करेंगे, लेकिन अब उन्हें पता है, भारत पलटवार ज़रूर करेगा। और हम पाकिस्तान को यह साफ़ तौर पर दिखा चुके हैं कि हम जब चाहें, जहाँ चाहें घुस सकते हैं। और वे? अधिकतम ऊपर देख “अल्ला-हो-अकबर” चिल्लाने के आलावा कुछ नहीं कर सकते।

कुछ लोग ने कहा कि भारत कूटनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ गया है।
ये कैसे?
पहले, जब भी पाकिस्तान से कोई बुरा कांड होता था, दुनिया भारत पर संयम बरतने का दबाव डालती थी।
इस बार किसी ने कुछ नहीं कहा। बल्कि तीन दिन तक हमें पूर्ण स्वतंत्रता मिली, जहां हमने पाकिस्तान की सेना के दिल में डर बैठा दिया।

राजनयिक समर्थन का यही अर्थ है — कोई कुछ न बोले और आंखें फेर ले। और यही हुआ। यह एक बड़ी कूटनीतिक सफलता है।
यहां तक कि राष्ट्रपति ट्रंप ने भी पहले ही दिन इसे “टिट-फ़ॉर-टैट” यानी “जैसे को तैसा” कह कर मान्यता दी।

कुछ लोगों ने यह भी कहा कि हम पश्चिमी मीडिया में नैरेटिव हार रहे हैं।
कितनी बेवकूफी भरी सोच है ये !
तीन दिनों में भारत एशिया पैसिफिक क्षेत्र में सबसे शक्तिशाली सैन्य ताकतों में से एक बनकर उभरा। इतना ही नहीं, अब तो अफ्रीका के रक्षा बाजार में भी भारत की पकड़ मज़बूत हो रही है। क्या आपको लगता है कि पश्चिमी मीडिया इससे खुश होगा?

भारतीय सैन्य शक्ति और राजनीतिक नेतृत्व की निर्णायकता ने वैश्विक व्यवस्था को रीसेट कर दिया है। पिछले हफ्ते, भारत ने जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल किया।

और अगर हम उम्मीद कर रहे हैं कि पश्चिमी मीडिया भारत की इन उपलब्धियों पर जयकारे लगाएगा, तो समस्या उनमें नहीं — हमारी समझ में है।


भारतीय मुख्यधारा मीडिया के बारे में जितना कम कहा जाए, उतना अच्छा।
उनके हिसाब से तो हम संसद भी अब लाहौर से चला रहे हैं!
अजीब जोकरों की टोली है! सच बोलूं तो पाकिस्तान जितनी शर्मिंदगी पैदा करने की पूरी क्षमता है इन लोगों में।

जो सबसे ज्यादा निराशाजनक रहा, वह था विपक्ष का अजीब, असंवेदनशील और अपरिपक्व रवैया।
इनकी प्रतिक्रिया ने न केवल सेना का मनोबल गिराया, बल्कि शत्रु राष्ट्र के नैरेटिव को भी बल दिया।

राहुल गांधी ने यह सवाल उठाया कि क्या पाकिस्तान को पहले से ऑपरेशन की सूचना थी। यह सिर्फ़ एक अज्ञानता भरा सवाल नहीं था — ऐसे ही दावे पाकिस्तानी मीडिया में भी चल रहे थे ताकि ऑपरेशन के असर को कम करके दिखाया जा सके। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इसे सही रूप में “भ्रामक और खतरनाक” करार दिया।

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने ऑपरेशन सिंदूर को “छुटपुट युद्ध” कहा — यह केवल भारतीय सैनिकों की बहादुरी और बलिदान का अपमान नहीं था, बल्कि वह शत्रु के नैरेटिव के साथ मेल खाता था। कांग्रेस के लिए ब्रह्मोस मिसाइल से दुश्मन के दिल पर वार भी महत्वहीन था।

बहुत दुख होता है ये देखकर कि हमारा विपक्ष और इनके तमाम संपोले इस ऑपरेशन को छोटा दिखाने के लिए बेचैन थे। यह सोच सिर्फ इनके “मीर जाफ़र” जैसी गद्दारी को दर्शाती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि यह रणनीतिक, सैन्य और राजनीतिक रूप से भारत की एक बड़ी जीत है।
मगर भारत एक विकसित राष्ट्र बनने की राह पर है — और उसके पास ऐसे राष्ट्र से लड़ने का समय नहीं, जो दुनिया को केवल आतंकवाद देता है।
हर बार, जब वो कोई हरकत करेंगे — उन्हें जवाब मिलेगा।

भारत को असली युद्ध अब भीतर लड़ना है।
अंदरूनी शत्रु — सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है। यही शत्रु बाहरी दुश्मनों को बल और हिम्मत देता है।
भारत को असली सफाई अब अपने भीतर करनी होगी।

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